बॉलीवुड (Janmat News): एक्शन जॉनर की फिल्मों का बुनियादी कायदा है कि हैरतअंगेज स्टंट, हड्डियों का चूरमा और खून से सने विलेन की मौजूदगी के बावजूद इमोशन का सुर बिगड़ना नहीं चाहिए। फिल्म को हर हाल में इंटेंस इमोशन का साथ मिलना ही चाहिए, तभी वह दिल को छू पाती है। इसकी बेहतरीन मिसाल ‘गजनी’ थी जिसमें शॉर्ट टर्म मैमोरी लॉस वाले नायक के रिवेंज-ड्रामा ने दिल को छुआ था। फिल्म समीक्षकों ने साहो को 1.5 से 2.5 तक की रेटिंग दी है।
‘साहो’ एक्शन के साथ-साथ थ्रिलर फिल्म भी है। ऐसे में इसके ऊपर रहस्य से लबरेज रहने की दोहरी जिम्मेदारी थी। यंग एज के राइटर और डायरेक्टर सुजीत के कंधे दोहरे दबाव के आगे पूरी तरह झुक गए। उनकी फिल्म न तो इंटेंस हो पाई और न ही दिलचस्प।
लोकेशन और स्पेशल इफेक्ट्स पर फोकस
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डायरेक्टर का सारा ध्यान किरदार से लेकर लोकेशन और स्पेशल इफेक्ट्स की सजावट में ही लगा रहा। अबुधाबी में उन्होंने वाजी सिटी कायम की है। वह लकदक बन पाई है पर ऊंची इमारतें, चॉपर, कार, बाइक और गुर्गों के काफिले और इमोशन की गैरमौजूदगी के चलते कुछ भी हैरतअंगेज महसूस नहीं होता। कहानी कमजोर और स्क्रीनप्ले उलझी हुई है। इसका खामियाजा सधे हुए कलाकारों की फौज को भुगतना पड़ा है।
हिन्दी और एक्स्प्रेशन में मात खा गए प्रभास
प्रभास ने डबिंग नहीं करवाई है। उनका हिंदी खुद बोलने का प्रयोग भारी पड़ा है। डायलॉग के साथ उनके चेहरे के एक्स्प्रेशन आपस में तालमेल नहीं बिठाते। वह पूरी फिल्म में अखरता रहा। ‘बाहुबली’ के बाद उनसे काफी उम्मीदें थीं। उन्होंने इस मोर्चे पर कोशिश तो खासी की, मगर वे इंप्रेस नहीं कर पाए। हां, एक्शन सीक्वेंसेज में उन्होंने अपनी कद-काठी और परफॉर्मेंस को जस्टिफाई किया है। उसमें वे जंचे हैं। मगर भाषागत खामियों के चलते भी इमोशन जगा नहीं पाए। कई मौकों पर वजनदार डायलॉग होने के बावजूद वे फ्लैट लगे। उसके चलते हिंदी के लिहाज से ऑडियंस के साथ उनका कनेक्ट नहीं बन पाया। कॉप अमृता नायर के रोल में श्रद्धा कपूर ने अनुशासन के दायरे में अदायगी की है।
टिंग 2.5/5 स्टारकास्ट प्रभास, श्रद्धा कपूर, नील नितिन मुकेश निर्देशक सुजीत निर्माता वी. वामसी कृष्ण रेड्डी, प्रमोद उप्पलपति, भूषण कुमार जॉनर एक्शन थ्रिलर संगीत तनिष्क बागची, गुरु रंधावा अवधि 174 मिनट - फिल्म मूल रूप से अपनी एक्शन कोरियोग्राफी के लिए जानी जाएगी पर उसे कहानी का साथ नहीं मिला है। नतीजतन फिल्म साधारण बनकर रह गई है। मेकर्स ने अट्रैक्ट करने वाले एक्शन सीन गढ़े हैं पर कई मर्तबा ऐसा लगा है कि पैसे की बर्बादी भी की गई है।
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विलेन कैरेक्टर्स की पूरी टोली है। मगर विलेन से बदला लेने के लिए नायक जो रास्ता अख्तियार करता है, वह कनविंस नहीं करता। पुलिस में घुसकर अफसर बनकर एक ब्लैक बॉक्स के पीछे पड़ता है, जिसकी तलाश देवराज को भी है। वाजी सिटी और मुंबई के बीच किरदारों की आपसी रस्साकशी के चलते कहानी में इतनी गांठें पड़ती हैं कि दर्शक कन्फ्यूज होकर रह जाते हैं। मुद्दे पर आने में फिल्म खासा वक्त लेती है। ‘साहो’ संस्कृत शब्द है जिसका मतलब तो किसी की सराहना करते रहना है। पर सुजीत की साहो सराहना के काबिल नहीं बन पाई है।
Posted By: Priyamvada M