जनमत विचार(जनमत): हर जुबान पर जिस भाषा की मिठास है पर वही भाषा आज चंद लोगो के बोले जाने की मोहताज है… यह कथन बिलकुल सही बैठता है की जिस भासा को राजभाषा का दर्जा मिला हुआ है वही भाषा अब धीरे धीरे व्यक्ति अनुभव को देखते हुए नदारद से होती जा रही है| हिन्दी का अपमान भारत का अपमान हिन्दी का अपमान देश की सनातन संस्कृति का, देश के सविधान का तथा सम्पूर्ण भारीतय जनमानस का अपमान है| आखिर किसी विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राजकाज और शिक्षा की भाषा होना संस्कृतिक दासता नहीं तो और क्या है?
कहने को तो हम सीना ठोक कर कहते है कि “हिन्दी है हम वतन, है हिंदुस्तान हमारा”लेकिन यूपीएससी के परीक्षाओं में हिन्दी दूर- दूर तक नहीं दिखाई पड़ी| तो फिर हम मान लेते है कि हिन्दी के नाम पर केवल कार्यक्रमों में आयोजन एव सीना पीटने के लिए बने है| यूपीएससी 2018 का परिणाम हिन्दी माध्यम के प्रतियोगियों के लिए बहुत ही निराशजनक रहा है| ऐसा लगता है कि हिन्दी माध्यम वाले प्रतियोगिता के लायक ही नहीं है| उनमे ज्ञान,विवेक, समझ और किसी विषय का विशलेषण करने की क्षमता ही नहीं होती या फिर इनको जान बूझकर बाहर करके प्रशासनिक तंत्र को अंग्रेजी का आवरण पहनने की कोशिश की जा रही है| यूपीएससी में हिन्दी माध्यम वालो का सिर्फ 3% चयन होना और टॉप 300 में नहीं होना बहुत ही दुखद है| देश में आज अनेक पिछडे है जहाँ अंग्रेजी में तो बहुत दूर की बात हिन्दी अथवा अन्य…. भाषा माध्यमों में भी पढाई की समुचित व्यवस्था नहीं है, तो क्या हिन्दी माध्यम वालों को प्रशासनिक अधिकारी बनने का सपना छोड़ देना चाहिए?
हिन्दी राष्ट्रभाषा वाले देश में हिन्दी माध्यम वालों के साथ ऐसा भेदभाव यूपीएससी में विशेषकर 2011 के बाद नवीन पैटन अपनाने के बाद से कुछ ज्यादा ही बढ़ा है| वैसे वर्तमान भारीतय समाज में अंग्रेजी बोलने वाले गधो को भी स्थानीय भाषा बोलने वाले इंसान से बेहतर …. समझा जाता है| यह हमारी मानसिक गुलामी ही हैकि देश में कही भी अंग्रेजी सामान्य बोलचाल की भाषा नहीं है फिर भी अंग्रेजी बोलने वाले आधुनिक और सभ्य समझे जाते है जबकि स्वयं की मातृभाषा बोलने वालो को गवार अथवाअसभ्य समझाजाता है| अहकार से भरा यही अंग्रेजी का गुलाम तथा कथिक उच्च वर्ग हिन्दी माध्यम की उत्तर पुस्तिकाओ का मुल्यांकन करता है, तो क्या उसे भेदभाव रहित माना जा सकता है? आज चीन, कोरियन भाषा के बल पर यूरोप को प्रत्येक क्षेत्र में टक्कर दे रहे है, परन्तु भारत में एक ग्रुप “घ” की छोटी सी नौकरी के लिए भी अंग्रेजी आना जरुरी है| यह हमारी मानसिक गुलामी का स्तर है|
हिन्दी के साथ इस बार 2018 का यूपीएससी का परिणाम देखकर लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब आईआईटी, ऑक्सफोर्ड डीपीएस में पढने वाले अमीरों के बच्चे ही प्रशासक बनेगे और मजदुर- किसान का वह पुत्र जो प्रशासनिक अधिकारी बनने के सपने सजोकर अपनी जमीन गिरवी रखकर कोचिंग की फीस भर कर तैयारीकरता है उसे वापस खेत में मजदूरीकरने के लिए बाध्य होना पड़ेगा| यूपीएससी में अगर हिन्दी माध्यम की उत्तर पुस्तिकाओ का मुल्यांकन अंग्रेजी माध्यम का शिक्षक करता है तो उनसे ईमानदारी की उम्मीद नहीं की जा सकती जिनके लिए अंग्रेजी ही योगता का एकमात्र पैमाना है|
अब समय की मांग है कि हिन्दी माध्यम वाले लामबंद होकर इस भेदभाव का विरोध करे,राजनेताओ के सामने अपनी बात रखे, सरकार में बैठे लोगो की ज्ञापन दे, सुसंगठित होकर अपने प्राकृतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करे अन्यथा जैसे राजनीती कुछ परिवारों और व्यक्तियों की गुलाम बनकर रह गई है,ठीक वैसे ही नौकरशाही भी एक विशेषवर्ग तक ही सिमित रहजाएगी इसलिए पढ़ना ही काफ़ी नहीं है बल्कि अपने अधिकारों की लड़ाई हमे और आपको खुद ही लड़नी है| समय रहते अपने अधिकारोंकी प्रति जागरूक हो जाइये वरना गरीबी- अमीर की खाई दिनों दिन बढती ही जाएगी और समतामूलक समाज की परिकल्पना अग्रेजी करण में विलीन सी हो जाएगी| चुकी जो हिन्दी हमारी “माँ” जैसी है आज उसी के अस्तित्व की लड़ाई अगर नहीं लड़ी गयी तो आने वाले दिनों में हम बिन “मा” के हो जायेंगे……….
देवानन्द यादव
आईआरटीएस
पूर्वोत्तर रेलवे