उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनाव परिणामो से यह साफ संदेश निकला है कि जनता अब जाति और परिवारवाद की राजनीति बिल्कुल पसंद नहीं करने वाली। धर्म के नाम पर तुष्टिकरण की भी अब कोई जगह नहीं। जो समावेशी होगा, सभी को साथ लेकर विकास के लिए कार्य करेगा, अब भारत का लोकतंत्र केवल उसी को सत्ता की अनुमति देगा। इससे पहले की जो राजनीतिक परिपाटी बनी थी वह अब आगे नहीं चलने वाली। अब जो जनादेश है उसके निहितार्थ पर सभी रजानीतिक पार्टियों को मंथन करना ही होगा।
यह स्पष्ट हो गया है कि कोई पार्टी तब तक किसी प्रदेश अथवा देश में ही अल्पसंख्यक तुष्टीकरण करते हुए जीत सकती थी, जब तक बहुसंख्यक जनता उसे झेल सकती थी। यह परंपरा जब अपने चरम पर पहुँच गई, तो बहुसंख्यक जनता एक ऐसी सशक्त पार्टी की राह तकने लगी, जो उसकी बात करे; जो इफ़्तार पार्टी अगर करे तो दीवाली और होली मिलन भी निश्चित रूप से करे। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने यही किया। यह अकारण नहीं है कि नरेंद्र मोदी का गोल टोपी पहनने से इनकार करना बहुसंख्यक अस्मिता का प्रतीक बन गया था।
आज उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, मणिपुर और पंजाब के चुनाव परिणाम आए हैं, जिनमें से चार राज्यों में भारतीय जनता पार्टी और पंजाब में आम आदमी पार्टी की एकतरफा जीत ने लोकतन्त्र को मज़बूत करने का काम किया है। देश की जनता ने यह जता दिया है कि वह अब पांथिक और जातिवादी राजनीति के शिकंजे में पड़कर खुद को बंधक बनने नहीं देगी और विकास, सुशासन, सुरक्षा तथा जनकल्याण की योजनाओं को मत देते समय वरीयता देगी। महिलाओं ने भी जाति धर्म का भेदभाव किए बिना महिला सुरक्षा तथा विकास के मुद्दे को सर्वोपरि मानते हुए मतदान किया, जिसका सुखद परिणाम ये नतीजे रहे हैं।
अब मतदाता सिर्फ लुभावने वादों से भ्रमित नहीं होता और पांच साल के लिए स्थिर सरकार सेना चाहता है। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह कि प्रत्येक राज्य में दो दलीय व्यवस्था को धीरे धीरे मतदाता अपना रहे है। कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी,अकाली दल, दलबदलू नेता इन सब क्षेत्रीय दलों और ब्लैक मेलरों को जनता ने इतिहास बना दिया है। इक्का दुक्का उदाहरणों को छोड़ दें तो अब देश में माफिया और हिस्ट्रीशीटर चुनाव जीतकर आ पाने में कामयाब नहीं हो रहे हैं। भाजपा गठबंधन से अचानक सपा में शामिल हुए जातीय क्षत्रपों की दुर्गति इसी का परिणाम दिख रहा है। यह प्रचंड जनादेश बहुसंख्यक अस्मिताबोध की भी अभिव्यक्ति है।
जब भी धर्म की बात होती है, तब जातीय समीकरण ढीले पड़ जाते हैं। मुसलमानों में यह धारणा सदा से रही है, अब हिंदुओं में भी धीरे-धीरे यह बात आ रही है। इसका मतलब है कि आगे सालों-साल तक बहुसंख्यक जनता की अनदेखी करने वाली पार्टी हाशिये पर ही रहेगी। इस चुनाव ने यह भी स्पष्ट संकेत दिया है कि अब वे दिन लद गए जब कुछ परिवारवादी या जातीय अथवा पांथिक तुष्टिकरण करने वाली पार्टियां कुछ वर्गों और दलितों को सदा-सदा के लिए अपना वोटबैंक समझती थीं। विगत 3-4 दशकों का सामान्य अनुभव जनता के बीच में है कि दलितों-वंचितों को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करनेवाली पार्टियों ने स्वयं का साम्राज्य खड़ा किया, दलितों ग़रीबों का कोई भला नहीं किया और उन्हें अपनी ज़ागीर समझा।
इस चुनाव में भी दलितों के मसीहा बनने वालों की जमानतें देशभक्त दलित जनता ने ही ज़ब्त करवाई है।आँकड़े इसकी गवाही देते हैं। बात एकदम साफ है। यह नया भारत है। यहाँ जनसरोकार और राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर जनता-जनार्दन की मुहर लगेगी, लगती रहेगी। इस बार का जनादेश ऐसे अनेक संदेश लेकर आया है। अब रजानीतिक दलों को इस पर आत्ममंथन भी करना होगा और जनभावनाओं और आस्था का भी ख्याल करना होगा। यह वास्तव में मोदी का वह नया भारत है जो विश्व को राह दिखा रहा है। इसलिए भारत के भीतर की राजनीति के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।